SHREE BHAKTAMAR STOTRA
- Apr 6, 2021
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काव्य-1
भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा,
मुद्द्योतकं दलितपापतमोवितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।१।
अर्थ-
कर्मभूमि के प्रारम्भ में, भूख-प्यास से पीड़ित प्रजा को, जिन्होंने उसके निवारण का मार्ग दिखाया और धर्म का उपदेश देकर पाप के प्रसार को रोका, भक्ति युक्त देवों ने आकर चरण-कमलों में नमस्कार किया। उनके चरणों के नखों की कान्ति से देवों के मस्तक के मुकुटों में लगी हुई मणियाँ और भी अधिक चमकने लगती थी। ऐसे प्रथम जिनेन्द्र ऋषभदेव के चरणों में प्रणाम करके मैं उनकी स्तुति करूँगा।
काव्य-2
यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधा-
दुद्भभूतबुद्धिपटुभिःसुरलोकनाथैः ।
स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्त हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।२।
अर्थ-
समस्त शास्त्रों के तत्वज्ञान से उत्पन्न हुई निपुण बुद्धि से अतीव चतुर बने हुए देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को हरण करने वाले ,अनेक प्रकार के गम्भीर एवं विशाल स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की है, आश्चर्य है! उन प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभप्रभु की स्तुति मैं भी करूँगा। सभी तीर्थंकर अरिहंत पद पर रहते हुए तीर्थ की आदि करते हैं, अतः प्रथम जिनेश्वर कहकर समस्त अरिहंत परमात्मा की स्तुति भक्तामर में की गई हैं।
काव्य-3
बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ !
स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम्।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब -
मन्य: क इच्छति जनः सहसाग्रहीतुम् ।३।
अर्थ-
मैं (मानतुंग आचार्य) बुद्धि विहीन(अल्प बुद्धि), होकर भी जिनके पादपीठ (चौकी) की पूजा देवगण करते है, ऐसे जिनेन्द्र देव! आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ। यह मेरी बाल चेष्टा है, क्योंकि जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक के सिवा पकड़ने की अन्य कौन चेष्टा कर सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं । उसी प्रकार आपके अगम्य गुणों का वर्णन करने का प्रयास बाल लीला के समान ही है।
काव्य-4
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांङ्ककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरू प्रतिमोऽपिबुद्धया ।
कल्पान्तकाल पवनोद्धत नक्र-चक्रं,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।४।
अर्थ-
हे गणु सिन्धु! देवों के गुरू बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके चन्द्रमा के सदृश्य कांति वाले उज्जवल गुणों को कहने में समर्थ नहीं है, तो अन्य कौन समर्थ है? जैसे प्रलय काल के प्रचण्ड पवन से उछलते हुए मगरमच्छों से युक्त समुद्र को दो भुजाओं से तैरने के लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं।
काव्य-5
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः।
प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं,
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।५।
अर्थ-
हे मुनीश! वही मैं, आपका भक्त, शक्ति नहीं होने पर भी भक्ति के वश आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, जैसे हिरणी समर्थ नहीं होने पर भी वात्सल्य वश अपने शिशु का रक्षण करने के लिए सिंह का सामना करती है।
काव्य-6
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम,
त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चारूचाम्रकलिकानिकरैक हेतुः ।६।
अर्थ-
है भगवान! जैसे वसन्त ऋतु में आम्र की मंजरी का निमित्त पाकर कोयल मधुर गाती है, वैसे ही मैं भी आपकी भक्ति मे वशीभूत होकर आपकी स्तुति करने हेतु वाचाल हो रहा हूँ। अन्यथा मैं तो अल्पज्ञानी हूँ और ज्ञानियों के सामने उपहास का पात्र हूँ।
काव्य-7
त्वत्संस्तवेन भवसंततिसन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु,
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।७।
अर्थ-
जैसे अमावस की रात्रि का समस्त लोक में फैला हुआ भ्रमर के समान काले रंग वाला घोर अंधकार सूर्य की किरणों से शीघ्र समूल नष्ट होजाता है, वैसे ही अहो प्रभु! आपकी स्तुति करने से देहधारियों के अनेक भवों के संचित अर्थात्बंधे हुए पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं।
काव्य-8
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी दलेषु
मुक्ताफल-द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।८।
अर्थ-
हे नाथ! मुझ अल्पज्ञ द्वारा रचित यह साधारण स्तोत्र भी आपके प्रभाव से सज्जन पुरूषों के मन को अवश्य ही हरण करेगा, जैसे कमलिनी के पत्तों पर पडती हुई जल की बूँद भी उन पत्तों के और सूर्य किरण के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।
काव्य-9
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांञ्जि ।९।
अर्थ-
हे अशरण शरणनाथ! सूर्योदय होना तो दूर रहा, परन्तु उसकी अरूण-प्रभा ही सरोवरों के कमलों को खिला देती है। उसी प्रकार हे भगवन्! आपके निर्दोष स्तवन करने का क्या महत्त्व बताऊँ? आपके नाम का केवल उच्चारण ही संसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश कर देता है। अर्थात् सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका पवित्र कीर्तन तो बहुत दूर की बात है, मात्र आपकी चरित्र-चर्चा ही जब प्राणियों के पापों को नष्ट कर देती है, तब स्तवन की अचिन्त्य शक्ति का तो कहना ही क्या?
काव्य-10
नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।१०।
अर्थ-
हे, जगतभूषण ! संसार में जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को वैभव देकर अपने जैसा समृद्ध नहीं बनाता, उस स्वामी की सेवा से सेवक को क्या लाभ है? कुछ भी नहीं, किन्तु, हे, भुवन भूषण! हे, जगन्नाथ! जो भव्य पुरुष आपकी स्तुति करते हैं, वे आपके ही सदृश हो जाते हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
काव्य-11
दृष्ट्-वा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।
पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ।११।
अर्थ-
चन्द्र के किरणों के समान, कांति वाले क्षीर सागर के दुग्ध के समान, मधुर जल का पान करके कौन पुरुष लवण समुद्र के खारे जल को पीने की इच्छा करेगा? कोई भी पीना नहीं चाहेगा। वैसे ही हे, भगवन्! जो पुरुष अपलक दृष्टि से आपको एक बार अच्छी तरह से देख लेता हैं, उसकी दृष्टि फिर अन्य देवो मे संतोष प्राप्त नहीं करती है।
काव्य-12
यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं,
नर्मापित स्त्रिभुवनैक ललामभूत! ।
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।१२।
अर्थ-
तीनों लोक में अद्वितीय सुन्दर रूप के धारक भगवान ! शान्त-रस की कान्ति वाले जिन मनोहर परमाणुओं से आपके शरीर का निर्माण हुआ है, वे परमाणु इस लोक में बस उतने ही थे। क्योंकि अधिक होते तो आप जैसा रूप औरों का भी दिखाई देता, यही कारण है कि, संसार में आपके समान, अन्य कोई सुन्दर रूप वाला व्यक्ति दिखाई नहीं देता है।
काव्य-13
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारी,
नि:शेष निर्जित जगत्त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कड्लंकमलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।१३।
अर्थ-
हे, भगवन्! देवों, मनुष्यों और नागकुमारो के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला आपका सुन्दर मुख कहाँ? और कलंक से मिलन बना हुआ चंद्रबिंब कहाँ? क्योंकि चंद्रबिंब तो दिन में ढाक के सूखे पत्ते के सदृश फीका हो जाता है और जो मृग के चिन्ह से भी मलिन है, किन्तु आपका मुख निर्मल और सदा ही प्रकाशमान रहता है।
काव्य-14
संपूर्णमण्डलशशांङ्ककलाकलाप!,
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति संञ्चरतो यथेष्टम् ।१४।
अर्थ-
हे त्रिलोक के स्वामी! पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल की कलाओं के समान आपके अत्यन्त उज्जवल गुण तीनों लोको में व्याप्त हैं। अर्थात् तीन लोक में फैले हुए हैं क्योंकि जो गुण एक अर्थात् अद्वितीय स्वामी के आश्रय में रहे हुए हैं उन्हें इच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने से कौन रोक सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं रोक सकता।
काव्य-15
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांङ्गनाभि-
र्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्तकालमरूता चलिता चलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।१५।
अर्थ-
हे वीतरागी भगवान। स्वर्ग की सुन्दर अप्सराओं ने अपने हाव-भाव-विलास के द्वारा आपको विचलित करने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु आपका चित्त जरासा भी विचलित नहीं हुआ, सो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। प्रलयकाल का प्रचण्ड पवन बड़े बड़े पर्वतों को चलायमान कर देता है, परन्तु क्या कभी वह सुमेरू के शिखर को कम्पित कर सकता है? कदापि नहीं।
काव्य-16
निर्धूम वर्तिरपवर्जित तैलपूरः,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरूतां चलिताचलानां,
दीपो ऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ।१६।
अर्थ-
अहो नाथ! आप अद्वितीय अपूर्व दीपक हैं, जिसमें क्षायिक केवलज्ञान की शाश्वत अखण्ड ज्योति के परिप्रेक्ष्य में तीन लोकों के समस्त पदार्थ एक साथ अपनी द्रव्य गुण पर्यायों से युक्त स्वयमेव प्रकाशमान है। आपका जीवन राग से नहीं, बल्कि वीतरागता के चैतन्य प्राणों से देदीप्यमान है। आप अपने में परिपूर्ण शुद्ध और एक होने से किसी पर वस्तु की अपेक्षा नहीं रखते, अव्याबाध सुख-प्राप्ति हेतु सांसारिक विषमताएं बाधा पहुंचाने में समर्थ नहीं है। अतएव आप लौकिक दीपक से सर्वथा भिन्न एक अलौकिक स्व-पर-प्रकाशक, अविनाशी अपूर्व चिन्मय दीपक हैं।
काव्य-17
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:,
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।१७।
अर्थ-
हे मुनीश्वर! आप नभ सूर्य से भी अधिक विलक्षण महिमा शाली सूर्य हो। सूर्य प्रतिदिन उदित होता है और संध्या के समय अस्त हो जाता है, किन्तु आपका केवलज्ञानरूपी सूर्य सदैव प्रकाश मय रहता है। सूर्य को राहु ग्रसित कर लेता है, किन्तु आपके ज्ञान आलोक को कोई भी दुष्कृत रूप राहु ग्रसित नहीं कर सकता। सूर्य सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है और वह भी क्रम-क्रम से, किन्तु आप तो तीन जगत् को एक साथ केवल ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हैं, आपके महाप्रभाव को संसार का कोई भी पदार्थ अवरूद्ध नहीं कर सकता। अर्थात आपका ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट हो जाने से आप अतिशय महिमा शाली सूर्य हो।
काव्य-18
नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं,
गम्यं न राहवदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्वशशांङ्कबिम्बं ।१८।
अर्थ-
हे भगवान! आपका मुख कमल विलक्षण चन्द्रमा है। नभ का चन्द्र तो केवल रात्रि में ही उदित होता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र सदा ही उदयमान होता है। चन्द्रमा थोड़े से क्षेत्र के बाह्य अंधकार को नष्ट करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र मोहरूपी आंतरिक घोर अंधकार का विनाशक है। और मेघ भी उसे आच्छादित कर देते है, परन्तु आपके मुख रूपी चन्द्र को अज्ञान रूपी अन्धकार आच्छादित नहीं कर सकता, और दृष्कृत रूपी राहु ग्रसित नहीं कर सकता। चन्द्रमा पृथ्वी के कुछ भाग को ही प्रकाशित करता है। किन्तु आपका मुख चन्द्र सम्पूर्ण लोक को प्रकाशमान करता है। नभ का चन्द्र अल्पकान्ति का धारक होने से हानि-वृद्धिमय है किन्तु आपका मुख-चन्द्र सदा अनन्त कांति का है। अतः आपका मुख-चन्द्र एक अपूर्व अलौकिक चन्द्र है।
काव्य-19
किं शर्वरीषु शशिऽनान्हि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ!
निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके
कार्यं कियज्जलधरैर्जलभरनम्रै: ।१९॥
अर्थ-
हे स्वामी! आपके मुख रूपी चन्द्रमा से पापरूपी अन्धकार के नष्ट हो जाने पर दिन में सूर्य के प्रकाश की, और रात्रि में चंद्रमा से क्या प्रयोजन है? क्योंकि संसार में देखा जाता है कि खेतों में धान्य के पक जाने पर पानी से भरे हुए बादलों का क्या प्रयोजन रहता है? अर्थात् कुछ भी नही
काव्य-20
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि ।२०।
अर्थ-
अहो प्रभु! अनन्त पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान आपमें पूर्ण रूप से सुशोभित हो रहा है, वैसा हरि अर्थात् विष्णु, हर अर्थात् महेश, ब्रह्मा और अन्य नायकों में, अर्थात् लौकिक देवों में नहीं होता है। क्योंकि जैसा प्रकाश स्फुरायमान मणियों में गौरव को प्राप्त होता है, वैसा सूर्य किरणों से चमकने वाले काँच के टुकड़ों का नहीं होता है।
काव्य-21
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनोहरति नाथ भवान्तरेऽपि |२१|
अर्थ-
हे नाथ! मैं मानता हूं की मैंने हरिहरादिक देवों के पहले ही देख
लिया, यह मेरे लिए अच्छा ही हुआ। क्योंकि उन्हें देख लेने के
बाद मेरा हृदय आपके दर्शन करके संतुष्ट हो गया है।
अब भवान्तर (अगले जन्म) में भी मेरे हृदय को अन्य कोई सारगी देव
देवी आकर्षित नहीं कर सकेगा।
काव्य-22
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्यासुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।२२।
अर्थ-
हे मरूदेवी-नाभिनन्दन! संसार में सैकड़ों स्त्रियाँ सैकडों पुत्रों को जन्म देती है, किन्तु आपके समान महाप्रतापी पुत्ररत्न को अन्य किसी माता ने जन्म नहीं दिया। वैसे तो सभी दिशाएं अनेक ताराओं को धारण करती है, किन्तु प्रकाशमान सूर्य को केवल एक पूर्व दिशा ही उदित (प्रकट) करती है।
काव्य-23
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ।२३।
अर्थ-
हे मुनीश्वर! मुनिजन आपको सूर्य के समान तेजस्वी, राग-द्वेष आदि से रहित निर्मल और अज्ञान रूपी अंधकार से विमुक्त परम श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं। जो लोग निर्मल हृदय से भलीभाँति आपकी उपासना करते हैं, वे मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, अतः आपको छोड़कर मोक्ष पद का दूसरा कल्याणकारी मार्ग दिखाने वाला अन्य कोई नहीं हैं।
काव्य-24
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्यमाद्यं,
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम्।।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।२४।
अर्थ-
हे नाथ! सन्त पुरूष आपको अव्यय (अनन्त ज्ञानादि स्वरूप होने से अक्षय), विभु (परमैश्वर्य शाली अथवा ज्ञान की अपेक्षा व्यापक), अचिन्त्य (चिन्तवन में नहीं आने वाले, अर्थात पूर्ण रूप से न जान सकने रूप), असंख्य (आपके गुणों की संख्या नहीं), आद्य (आदि तीर्थंकर), ब्रह्मा (मोक्ष मार्ग का सच्चा विधान करने वाले), ईश्वर (कृतकृत्य अर्थात् समस्त आत्माविभूति के स्वामी या तीन लोक के नाथ), अनन्त (जिसका अनन्त न हो, अविनश्वर, अर्थात् अनन्त चतुष्टय सहित), अनंगकेतु (शरीर रहित या अनुपम सुन्दर, अर्थात् कामदेव के नाश करने के लिये केतु रूप), योगीश्वर (योगियों के ईश्वर), विदीतयोग (ज्ञान-दर्शन- चरित्र रूप योग के जाने वाले), अनेक (अनन्त गुण पर्याय की अपेक्षा से), एक (अद्वितीय), ज्ञानस्वरूप (केवल ज्ञानस्वरूप) और कर्ममल रहित होने से अमल निर्मल कहते।
काव्य-25
बद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्,
त्वं शंङ्करोऽसि भुवनत्रय शंङ्करत्वात्।
धातासि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।२५।
अर्थ-
हे प्रभु। आपके केवलज्ञान की गणधरों ने अथवा देवों ने पूजा की है, अतः आप ही 'बुद्धदेव' हैं। आप लोकत्रयवर्ती जीवों का आत्म कल्याण करने वाले हैं, इसलिए आप ही 'शंकर' है। हे धीर, आपने रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का सत्यार्थ उपदेश दिया हैं, अतःआप ही विधाता - 'ब्रह्मा' हैं। हे भगवान! उपरोक्त गुणों से विभुषित होने के कारण आप ही साक्षात् पुरुष श्रेष्ठ 'श्रीकृष्ण' हैं, अर्थात् बुद्ध, शंकर (महादेव), ब्रह्मा और श्रीकृष्ण आदि को संसारी जीव देवों के नाम से पुकारते हैं, परन्तु अद्वितीय लोकोत्तर गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही सच्चे देव हैं।
काव्य-26
तुभ्यं नमस्त्रि भुवनार्तिहराय नाथ!,
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय।
तुभ्यं नमस्रिजगतः परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय ।२६।
अर्थ-
हे भगवन् ! तीन लोकों की पीड़ा हरने वाले आपको नमस्कार है। हे भूमण्डल के निर्मल आभूषण! आपको नमस्कार है। तीन जगत् के परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे जिनेन्द्र! भव सागर को सुखाने वाले अर्थात जीवों को मोक्ष पहुँचाने वाले! आपको नमस्कार है।
काव्य-27
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वंसंश्रितो निरवकाशतया मुनीश!
दोषैरूपात्त विविधा श्रय जातगर्वैः,
स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिद पीक्षितोऽसि ।२७।
अर्थ-
हे मुनीश्वर! समस्त सद्गणों ने आपमें सघन आश्रय पाया है। अतएव दोषों को आपमें जरासा भी स्थान नहीं मिला। फलस्वरूप वे अन्य अनेक देवताओं में स्थान प्राप्त करके गर्व को प्राप्त हो गये हैं। फिर भी वे स्वप्न में भी कभी आपको देखने नहीं आया है इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है? जिसे अन्यत्र आदर मिलेगा, वह भला आश्रय न देने वाले व्यक्ति के पास लौटकर क्यों आयेगा? आपमें दोष तो नाम मात्र भी नहीं है। आप तो गुणपूँज हैं।
काव्य-28
उच्चैरशोकतरु संश्रित मुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्किरण मस्ततमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति ।२८।
अर्थ-
१. अशोक वृक्ष प्रातिहार्य
हे, वीतराग प्रभो! समवसरण मे ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान प्रकाशमान और ऊपर की ओर फैली हुई किरणों वाला आपका निर्मल स्वरूप ऐसा भव्य प्रतीत
होता है, जैसे कि चमकती हुई किरणों वाला एवं अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला सूर्य का बिम्ब सघन मेघों के समीप शोभित होता है। भगवान ऋषभदेव की काया कंचनवर्ण सूर्य बिम्ब के सदृश है और अशोक वृक्ष मेघ के सदृश नीलवर्ण-वक्त है। अशोक वृक्ष के सानिध्य से ऋषभदेव का स्वतः तेजस्वी रूप और अधिक तेजस्वी दिखाई देने लगता है।
काव्य-29
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं
तुंङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्ररश्मेः ।२९।
अर्थ-
२. स्फटिक सिंहासन प्रातिहार्य
अहो भगवन! जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर आकाश में प्रकाशमान किरणरूपी लताओं के विस्तार से युक्त सूर्य का बिम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जड़े हुए बहुमूल्य रत्नों की किरण प्रभा से शोभित ऊँचे सिंहासन पर आपका स्वर्ण के समान दैदीप्यमान स्वच्छ शरीर शोभा को प्राप्त हो रहा है।
काव्य-30
कुन्दावदात चलचामर चारूशोभम्,
विभ्राजते तववपुः कलधौतकान्तम्।
उद्यच्छशांङ्क शुचि निर्झर वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शांतकौम्भम् ।३०।
अर्थ-
३. चँवर प्रातिहार
जैसे उदित होते हुए चन्द्रमा के समान झरनों की निर्मल जलधाराओं से सुमेरू का सुवर्णमयी ऊँचा शिखर शोभा पाता है, वैसे ही देवताओं के द्वारा दोनों ओर ढुराये जाने वाले कुन्द पुष्प के सदृश्य श्वेत चॅवरों की सुन्दर शोभा युक्त आपका स्वर्ण कान्ति वाला दिव्य देह भी अत्यन्त सुन्दर शोभा को प्राप्त हो रहा है। सुवर्णमय सुमेरू पर्वत के दोनों तरफ मानो निर्मल जल वाले दो झरने झरते हों, इस प्रकार से भगवान के सवर्ण शरीर के दोनों ओर उज्ज्वल चँवर ढुरते है।
काव्य-31
छत्रत्रयं तव विभाति शशांङ्क-कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम्।
मुक्ताफल प्रकर जालविवृद्धशोभं-
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।३१।
अर्थ-
४. छत्रत्रय प्रातिहार्य
हे प्रकाशपुंज भगवान! आपके | मस्तक के ऊपर जो तीन छत्र हैं वे तीन जगत् के स्वामित्व को प्रकट करते हैं। वे छत्र चन्द्रमा के समान ऊपर उठे हुए रमणीय श्वेत वर्ण वाले हैं, जिन्होने सूर्य की किरणों के आप (प्रताप) को भी रोक दिया है और मोतियों की झालरों के समूह से वे बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं।
काव्य-32
गम्भीर तार रव पूरित दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य लोक शुभ संङ्गम भूतिदक्षः।
सद्धर्म राज जय घोषण घोषकः सन्,
खे दुन्दुभि र्ध्वनति ते यशसः प्रवादि ।३२।
अर्थ-
५. देवदुंदुभि प्रातिहार्य
आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हैं, तब उसके सुंदर, गंभीर, उच्च शब्द स्वर से दसों दिशाएँ गूँज उठती हैं, उससे ऐसा अनुभव होता है मानो वह तीन लोक के प्राणियों को कल्याण-प्राप्ति के लिये आह्वान कर रही है और भगवान ही सच्चे धर्म का निरूपण करने वाले है। इस प्रकार सद्धर्म राजा की जयघोषणा करते है परमात्मा के यश को संसार में विस्तृत करती हुई आकाश में बजती है।
काव्य-33
मन्दार सुन्दर नमेरू सुपारिजात-
संतानकादि कुसुमोत्कर वृष्टिरूद्धा।
गन्धोद बिन्दु शुभ मन्द मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा।३३।
अर्थ-
६. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य
हे नाथ! आपके समवसरण अर्थात धर्मसभा में गन्धोदक की बूंदों से पवित्र मन्द पवन के झोंको से बरसने वाली देवकृत पुष्पवर्षा, बड़ी ही सुन्दर प्रतीत होती है। उसमें मन्दार सुंदर, नमेरु, सुपारिजात और सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के मनोहर सुगन्धित पुष्पों की दिव्य वृष्टि होती है। ये पुष्प जब आकाश से बरसते हैं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हों।
काव्य-33
मन्दार सुन्दर नमेरू सुपारिजात-
संतानकादि कुसुमोत्कर वृष्टिरूद्धा।
गन्धोदबिन्दु शुभ मन्द मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा।३३।
अर्थ-
६. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य
हे नाथ! आपके समवसरण अर्थात धर्मसभा में गन्धोदक की बूंदों से पवित्र मन्द पवन के झोंको से बरसने वाली देवकृत पुष्पवर्षा, बड़ी ही सुन्दर प्रतीत होती है। उसमें मन्दार सुंदर, नमेरु, सुपारिजात और सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के मनोहर सुगन्धित पुष्पों की दिव्य वृष्टि होती है। ये पुष्प जब आकाश से बरसते हैं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हों
काव्य-34
शुभ्रप्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते,
लोकत्रयद्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ति।
प्रोद्यद्दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या
दीप्त्यार्जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।३४।
अर्थ-
७. प्रभामण्डल प्रातिहार्य
हे भगवान! आपके भामण्डल की ज्योतिर्मयी प्रभा तीन जगत् के सभी ज्योतिष्मान् पदार्थों की ज्योति को भी लज्जित कर रही है जो उदित हुए सहस्त्रों सूर्यों के प्रकाश से अधिक प्रकाशमान होते हुए भी वह भामण्डल की सौम्यप्रभा, पूर्णमासी की शीतल चन्द्रिका को भी पराजित कर देती है। अर्थात्, भामण्डल की प्रभा सहस्त्रों सूर्यों की प्रभा से अधिक होने पर भी किसी को संतान नहीं पहुँचाती है, प्रत्युत चन्द्रमा की चाँदनी से भी अधिक शीतलता प्रदान करती है।
काव्य-35
स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्ट-
सद्धर्म तत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्यां ।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व-
भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ।३५।
अर्थ-
८. दिव्यध्वनिप्रातिहार्य
हे भगवन्! आपकी दिव्य ध्वनि विलक्षण गुणों से युक्त है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने वाली, तीन लोक के प्राणियों को सत्य धर्म का रहस्य समझाने में कुशल, स्पष्ट अर्थात् विशद् अर्थ वाली है और संसार की सभी भाषाओं में परिणत होने के गुण वाली होने के कारण अति विलक्षण है। सभी को अपनी भाषा में सरलता से समझ में आती है।
काव्य-36
उन्निद्रहेमनव पंङ्कज पुञ्जकान्ती,
पर्युल्लसन्नख मयूखशिखाऽभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।३६।
अर्थ-
प्रभु की विहारचर्या
हे जिनेन्द्र! विकसित नूतन स्वर्ण कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख-किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ-जहाँ टिकते है, वहाँ-वहाँ भक्त देवता पहले से ही स्वर्ण-कमलों की रचना कर देते हैं।
काव्य-37
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य।
यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहरतांधकारा,
तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।३७।
अर्थ-
समवसरण विभूति
अहो वीतराग देव! धर्मोपदेश देते समय जैसी आपकी दिव्य-विभूति होती है, वैसी समृद्धि अन्य देशों की नहीं होती है। क्योंकि अन्धकार को नाश करने वाली जैसी प्रचण्ड प्रभा सूर्य की होती है, वैसी प्रभा आकाश में चमकने वाले दूसरे ग्रह नक्षत्र, तारागणों की कैसे हो सकती है?
काव्य-38
श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल-
मत्तभ्रमद्-भ्रमरनादविवृद्धकोपम्।
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं
दृष्ट्-वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ।३८॥
अर्थ-
गजभय नाशक
युवावस्था में बहने वाले मद से मलिन एवं चंचल गण्डस्थल पर मँडराने वाले मदोन्मत्त भौंरों की गुंजार से अत्यंत क्रुद्ध हुआ इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान महाविशाल मदमस्त हाथी भी यदि आक्रमण करे तो भी आपके आश्रय में रहने वाले भक्तजनों को कुछ भी भय नहीं होता है, अर्थात् वे निर्भय बने रहते हैं। आपका भक्त गज भय से भी विमुक्त रहता है।
काव्य-39
भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त-
मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः।
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ।३९॥
अर्थ-
सिंहभय निवारक
जिसने दीर्घ भीमकाय हाथी के कुम्भस्थल का विदारण कर रक्त से सने हुए उज्जवल मोतियों के ढेर से भूमि-भाग को अलंकृत किया है, ऐसा भयंकर सिंह भी आपके चरण-युगलरूपी पर्वत का आश्रय लेने वाले भक्त के सामने ऐसा बन जाता है, मानो उसके पैर बाँध दिये गये हों, वह आपके भक्त पर आक्रमण नहीं कर पाता है, अर्थात् आपका भक्त सिंह-भय से भी विमुक्त रहता है।
काव्य-41
रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलं,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतत्नम्।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंङ्क,
स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुसः ।४१।
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